''घर छिनने का डर होता है लेकिन बारिश और चारों ओर की गंदगी ज़्यादा परेशान करती है''
बारिश दिल्ली के प्रदूषण के लिए दवा की तरह है, खासकर ठंड के मौसम में जब प्रदूषण अपने चरम पर होता है लेकिन बढ़ती ठंड और बेमौसम बारिश शैलेंद्र सिंह के लिए मुसीबत लेकर आती है। शैलेंद्र दिल्ली में झुग्गी में रहते हैं। वे तीन बच्चों के पिता हैं। वे कहते हैं कि, 'कौन चाहता है अपने बच्चों को सड़क पर रखना, हमारी मजबूरी है। गाँव में कमाने का कोई साधन नहीं है और यहाँ कमाई इतनी नहीं कि किराए पर कमरा लेकर रहा जा सके।
शैलेंद्र और उनके बच्चों की तरह भारत के करोड़ों लोग झुग्गी बस्तियों में रहते हैं। भारत सरकार के 2011 के सर्वेक्षण के अनुसार दिल्ली की कुल आबादी का पंद्रह फ़ीसदी झुग्गी बस्तियों में रहता है और एक कमरे में साथ रहने वाले लोगों की औसतन संख्या पाँच है।
दिल्ली की राज्य सरकार के अनुसार दिल्ली की सात सौ एकड़ ज़मीन पर झुग्गी बस्तियाँ हैं। इनमें दस लाख लोग रहते हैं। दिल्ली की नब्बे फ़ीसदी से ज्यादा झुग्गियाँ सरकारी ज़मीन पर बसी हुई हैं। चूँकि शैलेंद्र की झुग्गी भी सरकारी ज़मीन पर है तो उनकी झुग्गी को जी-20 के समय एमसीडी वालों ने गिरा दिया था। जब भी देश में कोई बड़ा आयोजन होता है तो दिल्ली की सड़कों से माँगने वालों को और झुग्गियों को हटा दिया जाता है। झुग्गियों को हटाया नहीं जाता तो उन्हें हरे पर्दे से ढक दिया जाता है। वह इस जगह पर लगभग 18 सालों से रह रहे हैं। 2010 के राष्ट्रमण्डल खेल के समय भी उनकी झुग्गी गिरा दी गई थी। इस बार शैलेंद्र परिवार के साथ पंद्रह दिनों तक घर से बेघर रहे और उनका काम भी बंद रहा।
शैलेंद्र अपनी झुग्गी के पास चाय की टपरी चलाते हैं। चाय के शौक़ीन रास्ता चलते और पास के संस्थानों के लोग उनके यहाँ चाय पीने आते हैं, यही शैलेंद्र की आजीविका का एकमात्र साधन है। शैलेंद्र का शरीर पोलियो से ग्रसित है हालाँकि भारत पोलियो मुक्त घोषित हो चुका है लेकिन पोलियो ग्रसित लोग अब भी हैं और उनके सामने जीवन की अपनी चुनौतियाँ हैं। शैलेंद्र के जीवन की चुनौती तब और बढ़ जाती है जब 2017 में पालियों से ग्रसित टांग दुर्घटना का शिकार हो गई और उनका पिछला जमाया हुआ मूँगफली का काम उनसे छूट गया। तभी से वे चाय बेचकर अपना गुजारा कर रहे हैं।
शैलेंद्र की पत्नी दामिनी गैंग रेप को याद करते हुए कहती हैं कि, 'यह घटना यहाँ से तीन किलोमीटर दूर इसी तरह की सड़क पर हुई थी। दिल्ली जैसे शहर में इस तरह खुले में रहना कहीं से भी सुरक्षित नहीं है'।जैसा आम तौर पर होता है झुग्गियों के आस पास सफ़ाई की कोई सुविधा नहीं होती उसी तरह उनकी झुग्गी के पास भी नहीं है। उनका परिवार शौच के लिए सार्वजनिक शौचालय का प्रयोग करता है।
शैलेंद्र अपनी बच्ची को बोतल से दूध पिलाते हुए कहते हैं हालाँकि हमारा छोटा सा घर अपने गाँव में भी है लेकिन वह इतना बड़ा नहीं है कि मैं भी अपने भाइयों के साथ अपने बच्चों को लेकर वहाँ रह सकूँ।
जब गाँव वालों को पता चलता है कि शैलू झुग्गी में रहता तो वे हमारे बच्चों को हिकारत भरी नज़रों से देखते हैं और दिल्ली के राह चलते लोगों का कहना ही क्या! यह कहते हुए शैलेंद्र की आँखों में पीड़ा दिखाई देती है। आम दिनों में पुलिस या एमसीडी के ऑफिसर लोग ज्यादा परेशान करने नहीं आते हैं लेकिन घर छिनने का डर लगा रहता है।
'आवाज़' में छपी खबर के मुताबिक निज़ामुद्दीन के पास झुग्गी बस्तियों को उजाड़ दिया गया। बेशक वह सरकारी जगह पर बसी हुई थी लेकिन या तो वहाँ लोगों को बसने ही नहीं दिया जाना चाहिए था या उनके बसने के लिए व्यवस्था कर जगह को खाली किया जाना चाहिए था। इस तरह का हाल लगभग हर झुग्गी-बस्ती का है।
झुग्गी और किसी भी मेट्रो सिटी का नाता अब और मजबूत होता नज़र आता है, जैसे- जैसे विकास बढ़ा है, शहरों में उद्योग-धंधे बढ़े हैं वैसे ही झुग्गियों की स्थिति खराब होती गई है। होना तो चाहिए था कि शहर के दोनों छोर का सतत विकास होता।
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