बड़े संस्थान पढ़ाई के साथ बन रहे अवसाद का केंद्र,

वैभव विज्ञान और शोध के क्षेत्र में देश के सबसे प्रतिष्ठित संस्थान भारतीय विज्ञान संस्थान, बेंगलुरु (आईआईएससी, बेंगलुरु) से रासायनिक विज्ञान में इंटीग्रेटेड पीएचडी कर रहे हैं। जब इस तरह के बड़े संस्थान में किसी का दाख़िला होता है तो घर, मोहल्ला, रिश्तेदार और गाँव में एक प्रतिष्ठा की नज़र से देखा जाता है, वैभव के साथ भी ऐसा ही था। वैभव अपने घर की स्थिति बताते हुए कहते हैं कि, “हम आर्थिक रूप से निम्न माध्यमवर्ग में आते हैं, हमारा एक पैर ग़रीबी में और दूसरा पैर आगे का रास्ता खोजने में लगा रहता है। अपने मन को मारकर अपने जीवन की दिशा उस ओर करनी पड़ती है जहां माँ-बाप और घर जाने को कहता है”।

वैभव उत्तरप्रदेश के बुलन्दशहर के रहने वाले हैं। उन्होंने अपनी स्नातक की पढ़ाई अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से की है। वे पहली बार घर से इतनी दूर पढ़ाई के लिए आये हैं। उनके गाँव में वो पहले हैं जो इतने अच्छे संस्थान से अपनी पीएचडी की पढ़ाई कर रहे हैं। उनका मन विज्ञान के शोध में कम कविताओं में ज़्यादा रमता है, वे कवितायें पढ़ते और लिखते हैं। नोबेल पुरुस्कार विजेता बिस्साव शिम्बोर्ष्का की पुस्तक “बीतती सदी में” उनकी सबसे प्रिय किताबों में से एक है। विनोद कुमार शुक्ल, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय और पाश जैसे कवि ही वैभव को संस्थान के अवसाद भरे माहौल से बाहर निकालने में मदद करते हैं।

संस्थान में पढ़ने वाले छात्रों पर पढ़ाई और शोध के काम का दबाव इतना होता है कि कोई साल ख़ाली नहीं जाता जब कोई ना कोई छात्र अवसाद में अपने जीवन को दाब पर नहीं लगा देता है। छात्रों की आत्महत्याओं को रोकने के लिए पूरे कैंपस में कहीं भी छत के पंखें नहीं लगे हैं, पंखे लगने वाली जगहों को सीमेंट से भर दिया गया है। इस सबके बावजूद वैभव का दोस्त डायमंड शर्मा दिसंबर के पहले सप्ताह में 6 मंज़िला इमारत से कूदकर जान दे देता हैं। वैभव डायमंड को यादकर रूँधे हुए गले से कहते हैं कि, “उसके कूदने के 30 मिनट बाद मुझे खबर मिली, तब तक उसको अस्पताल ले जा चुके थे, उसकी साँसे चल रही थी लेकिन वह किसी को पहचान नहीं पा रहा था और बोल भी नहीं पा रहा था। जब मेरे सामने उसके शरीर को स्टेचर से बेड पर रखा तो उसके पैर की हड्डी बाहर निकलकर ज़मीन पर गिर पड़ी, उस समय लगा जैसे पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक गई हो। यहाँ अपने को मज़बूत बनाए रखना बहुत बड़ी चुनौती है”।

भारत मे युवाओं के आत्महत्या की दर बहुत अधिक है, एनसीआरबी के आँकड़े बताते हैं साल 2020 में 12526 विद्यार्थियों ने आत्महत्या की और 2021 में 13089 ने जोकि पिछले साल के मुक़ाबले अधिक है। आत्महत्या करने वाले विद्यार्थियों में 56.50 फ़ीसदी लड़के और 44.50 फ़ीसदी लड़कियाँ होती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया भर में 79 फ़ीसदी आत्महत्याएँ निन्म और मध्य वर्ग आय संरचना वाले देशों के लोग करते हैं।

आईआईएससी, बेंगलुरु में शोधार्थियों को अवसाद से निकालने के लिए जागरूकता संबंधी कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। अपने-अपने विभाग में मेंटल हेल्थ पर विद्यार्थी और प्रोफेसर बातचीत करते हैं और संस्थान में इस सब को समर्पित एक अलग से यूनिट भी है। इतना सब होने के बावजूद भी आईआईटी और आईआईएससी जैसे बड़े संस्थानों में इस तरह की घटनाएँ देखने को मिलती हैं।

वैभव से सामान्य बातचीत में ही पता चल जाता है कि जीवन निरंतरता में मेहनत और लगन का नाम है, शोध नाम की चिड़ियाँ की आँख में निशाना सिर्फ़ आँख देखने से नहीं लगता, आगे-पीछे, ऊपर-नीचे का सब कुछ देखकर ही कुछ परिणाम हाथ लगते हैं। लगन और उम्मीद ही शोधार्थी के जज्बे को ज़िंदा रखती है। सबसे मज़ेदार बात तो ये है कि वैभव के दोस्त मजाक करते हुए बताते हैं कि,”वैभव अपने काम से ज़्यादा साहित्य पढ़ता है उसके पास यहाँ इतने कम समय में 100 से ज़्यादा साहित्य और समसामयिक विषयों की किताबें है। हमारे काम में उम्मीद की ज़रूरत होने के बाद भी वैभव की बातें निराशा से भरी जान पड़ती हैं। अपने को नास्तिक बोलता है। वहीं दूसरी ओर पर्यावरण बचाने के लिए दुबला पतला होने के बाद भी किसी प्रकार के जीवन और पर्यावरण के पक्ष में वीगन है”। वहाँ चार दोस्तों के बीच में यह सब सुनते हुए, उसके चेहरे पर मुस्कान अच्छी लग रही थी। एक दूसरे के बारे में ऐसे बातें करके माहौल को इस तरह हल्का किया जाता है, मुझे ऐसा प्रतीत हुआ।

भारत के तेज गेंदबाज़ प्रवीण कुमार अवसाद की अपनी यात्रा पर कहते हैं कि, “यह लड़ाई ख़ुद को ही लड़नी पड़ती है, अच्छे लोग इससे बाहर निकलने में उत्प्रेरक का काम अवश्य करते हैं। आपके पास कोई सम्भालने वाला है जिसके कंधे पर सिर रखकर आप रो सकते हैं तो बुरा सफ़र भी आसान हो जाता है”।

संस्थान सुविधाएँ देने के मामले में विदेशी संस्थानों को टक्कर देता है। खाना और रहने से लेकर शोध में मिलने वाली वाली सुविधाएँ अच्छी हैं। बेंगलुरु के अपने पास सबसे जिवंत चीज वहाँ का मौसम है। यह मौसम हिन्दी पट्टी के लोगों के लिए तो वरदान जैसा है। यहाँ आप अपना काम ज़्यादा गर्मी या ज़्यादा ठंड कहकर स्थिगित नहीं कर सकते हैं।

वैभव का जब भी मन उचटता है तो वे अपने घरवालों को याद करते हैं। मन में दोस्त के जाने का दुख हमेशा बना रहता है। वैभव आगे कहते है “काश एक बार उसने हमारे और अपने घरवालों के बारें में सोचा होता लेकिन…हमारी व्यस्तताएँ भी उसके जाने के कारणों में एक है (इतना कहते हुए वैभव का दोबारा गला रूँध जाता है)।

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डेविड

'काम' की कमी नहीं है। पढ़ना और जानना सीख रहे हैं। पत्रकार होने की कोशिश। कबीर की चौखट से 'राम-राम'। पश्चिम उत्तर प्रदेश से हैं। भारतीय जन संचार संस्थान(IIMC)- 2023-24