"सभी लड़ाइयां जीतने के लिए नहीं लड़ी जाती कुछ सिर्फ इसलिए लड़ी जाती हैं ताकि संसार से कहा जा सके, कोई था जो मैदान-ए-जंग में सामना करने के लिए मौजूद था"।
'नमस्कार में रवीश कुमार!' डॉक्यूमेंट्री टूटे-फूटे स्टूडियो सेट में पसरी मायूसी के साथ से शुरू होती है। फिल्म उन वास्तविकताओं के बारे में है जिनको आम जनता अपने विमर्श का हिस्सा बनाने में हिचकिचाती है।अगर आपने पिछले सालों के माहौल को महसूस किया है और आपकी दिलचस्पी माहौल को समझने में रही है तो डॉक्यूमेंट्री फिल्म के पहले सीन से ही आपको जुड़ाव महसूस होगा।
विनय शुक्ला द्वारा निर्देशित यह फिल्म चरम राष्ट्रवाद, भीड़ द्वारा संचालित न्याय तंत्र और देश में पत्रकारिता के गिरते आदर्श जैसे मुद्दों पर खुलकर बात करती है। निर्देशक का फिल्म बनाने का सबसे बड़ा उद्देश्य फिल्म के माध्यम से इन मुद्दों पर विमर्श पैदा करना है।
फिल्म में पांच से ज्यादा बार केक काटने के दृश्य है। ये सभी दृश्य अपने पूर्ण में बहुत मार्मिक बन पड़े हैं। साथी के छोड़कर जाने पर हर बार केक का कटना ऐसे महसूस होता है जैसे जीवन की रेखा कुछ छोटी होती जा रही हो।
रवीश कहते हैं "कितने अकेले होते जा रहे हैं। सारे साथी चैनल छोड़ रहे हैं। आप न्यूज रूम को खाली होते देख सकते हैं"। जो लोग रवीश के काम को देखते आए है उनके लिए मूवी रिवीजन का काम करती है। मूवी के लगभग सभी सीनों में शांत, बैचेन और घूरते चेहरे दिखते रहते हैं। जिंदगी के अवसाद से परेशान रवीश का चेहरा लगभग हर दृश्य में इससे उबरने की कोशिश करता रहता है। पत्रकारिता शब्दों का खेल है, मूवी जब शब्दों के जाल नहीं फेकती तब शब्दों से आगे की बात कह जाती है।
जान से मारने की धमकियों के बीच रवीश को जूझते लड़ते और उससे उबरते देखा जा सकता है। एक दृश्य में रवीश धमकी देने वाले कॉलर के साथ 'सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा' गाते हैं, यह दृश्य देश के हालात पर निजी तौर पर सोचने पर मजबूर कर देता है कि देश का युवा किस ओर ध्रुवित हो रहा है।
रवीश के परिवार और दफ्तर के साथियों के सीन फिल्म को बांधते हैं। पारिवारिक और दफ्तर की जिंदगी का इस्तेमाल मूवी में अच्छे मसालों की तरह किया गया है जो सटीक बैठा भी है। रवीश एक इंटरव्यू में कहते हैं कि, "विनय द्वारा एनडीटीवी से फिल्म को बनाने के लिए इजाजत से लेकर फिल्म बनने तक का सफर काफी कठिन और शानदार रहा है। क्योंकि इस डॉक्यूमेंट्री की फिल्मिंग के लिए 5 साल लगे हैं और 5 साल छोटा समय नहीं होता है"।
विनय शुक्ला की फिल्म न्यूयॉर्क के आईएफसी सेंटर पर एक महीने तक लगी और ब्रिटेन में फिल्म का प्रीमियर 6 हफ्ते तक लगातार चला। फिल्म ने आम लोगों के लिए फिल्म का रिलीज का रास्ता अभी साफ होता नहीं दिख रहा है। विनय कहते हैं कि, "भारत में फिल्म को बड़े तौर पर रिलीज करना आसान काम नहीं है। वह बिना मार्केटिंग बजट के फिल्म को यू ट्यूब पर भी नहीं डाल सकते हैं"। भारत में फिल्म के लिए कोई खरीददार न मिलना कई सवाल खड़े करता है।
"जाने माने कॉमेडियन 'जॉन ओलिवर' विडिओ जारी कर कहते है, "यह एक शानदार डाक्यूमेंट्री फिल्म है। यह सबसे महत्तपूर्ण फिल्म तब बन जाती है जब आप भारतीय मीडिया के बारे में जानते हैं। आप इसे जरूर देखें मेरी गारंटी है आप इसका आनंद लेंगे, अगर नहीं तो फिर समस्या आप में है फिल्म में नहीं"।
यह लेख अक्टूबर 2023 में लिखा गया था।
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