आरम्भिक भारतीय : भारतीयों का भरोसेमंद और वैज्ञानिक इतिहास।

हम स्कूल की किताबों में पाषाण काल से लेकर आज तक का इतिहास पढ़ते रहे हैं। कम उम्र और अपने पूर्वाग्रहों के कारण बहुत सारी बातें हमें आश्चर्य में डालती हैं।बहुत सारे सवाल बढ़ती उम्र और राजनीतिक समझ के चलते पैदा होते हैं, जैसे- हम कौन हैं? कहां से आए हैं? हमारे पूर्वज कैसे जीवन बिताते होंगे? कैसे दिखते होंगे?और सबसे ज्यादा उत्तेजित करने वाला सवाल क्या पूरा भारतीय उपमहाद्वीप आर्यों की संतान है? इस तरह के कई सवालों का जवाब देने की कोशिश करती है टोनी जोसेफ की किताब "आरंभिक भारतीय"। टोनी जोसेफ जाने माने पत्रकार हैं। किताब का अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद लेखक मदन सोनी ने किया है।

यह किताब आज क्यों जरूरी है? इस सवाल का जवाब देते हुए लेखक लिखते हैं कि पिछले सालों में सुदूर इतिहास के बारे में हमारी समझ में बहुत बदलाव आया है। हजारों साल पहले के डीएनए के विश्लेषण के आधार पर हमारे प्रागैतिहासिक काल के बारे में नए सिरे से लिखा जा रहा है। आनुवांशिक वैज्ञानिकों की हाल की अर्जित काबिलियत की बदौलत बीच में छूट गए सवालों के यकीन दिलाने वाले जवाब मिल रहे हैं।

जोसेफ बताते हैं कि आधुनिक मानव जैसा आज दिखता है वैसा बनने के लिए उसे कम से कम तीन लाख साल लगे हैं। हिंदुस्तान में आकर बसने वाले प्रथम मनुष्यों की आगमन की तारीख पैंसठ हजार साल के आस पास की है।

एक दिलचस्प बात यह है कि नर्मदा के तट पर दो लाख पचास हजार साल पहले की खोपड़ी पाई गई जिससे पता चलता है कि जब हमारे पूर्वज हिंदुस्तान पहुंचे थे, तब यह किसी भी तरह से खाली मुल्क नहीं था। पैसठ हजार साल पहले आधुनिक मानव भारतीय उपमहाद्वीप में आते हैं, उन आदिमानवों के छापेमार हमलों के शिकार होते हैं जो यहां सैकड़ों हजारों साल पहले अच्छे से बस चुके थे।

वर्तमान में पाकिस्तान के बलूचिस्तान में बोलना दर्रा की तलहटी खेती-किसानी के पुराने प्रयोगों का गढ़ रही है। यह जगह ईसापूर्व 7000 से 2600 के बीच 4400 सालों तक हलचलों में रहा। यह मानव इतिहास की बड़ी घटना थी।

विभिन्न डीएनए निष्कर्षों में पाया गया है कि हड़प्पा वासियों ने ईरानी खेतिहरों की वंशावली को भरपूर मात्रा में समाहित किया हुआ था। हड़प्पा सभ्यता के लोग प्रथम भारतीयों और जेग्रास पर्वत घाटियों के लोगों की मिलीजुली संतान थे।

भारत की  राजनीतिक और सामाजिक संरचना को देखते हुए, एक सवाल सबसे ज्यादा कौतूहल पैदा करता है कि खुद को आर्य कहने वाले इंडो-यूरोपियन भाषा बोलने वाले लोग भारत में कब और कैसे पहुंचे? टोनी जोसेफ इस प्रश्न का जवाब पूरे तसल्ली-बख़्श तरीके से वैज्ञानिक तथ्यों के साथ देते हैं। लेकिन क्या इसके बाद आर्यों से संबंधित बहस के अंत की मुनादी की जानी चाहिए?

आर्यों के प्रवासी होने के पक्ष में लेखक तर्क प्रस्तुत करते हैं कि निचली जातियों की तुलना में ऊंची जातियों में R1A की मात्रा बहुत अधिक है और ब्राह्मणों में अनुसूचित जातियों और जनजातियों की तुलना में लगभग दो गुनी है। हम देखते हैं कि यह एक विशेष आनुवांशिक निशानी है जो इंडो-यूरोपियन भाषा बोलने वाले  मुल्कों में मिलती है।

भीषण सूखे के कारण हड़प्पा सभ्यता के लोग उपमहाद्वीप के अन्य हिस्सों में पलायन कर रहे थे। इसी समय 2000 ईसा-पूर्व मध्य एशिया की स्टेपी से आने वाले चरवाहे जो अपने को आर्य कहते थे, वे हड़प्पा के लोगों के साथ मिले और उन्होंने नए आनुवांशिक समूह एएनआई (एंसिएंट नॉर्थ इंडियन) की रचना की और हड़प्पा के वंशज दक्षिण भारतीयों के साथ मिले तो नए आनुवांशिक समूह एएसआई(एंसियंट साउथ इंडियन) बनाया। दोनो समूहों के बीच अलग-अलग स्थानों और स्तरों पर अलग-अलग समय के दौरान, एक बार फिर से मेलजोल हुआ और उन्होंने हिंदुस्तान के मौजूदा लोगों को जन्म दिया।

क्या 'आरंभिक भारतीय' सभी सवालों का जवाब देती है? नहीं। हमेशा जानने के लिए कुछ न कुछ रह ही जाता है।सवालों से नए सवाल पैदा हों जाते हैं। इस सबके बावजूद टोनी जोसेफ नवीनतम अध्ययनों का सहारा लेते हुए निष्कर्ष तक पहुंचते हैं।

किताब की प्रकृति खोजी और सूचनात्मक है, जिसमें आनुवांशिकी से संबंधित शब्दावली का भरपूर प्रयोग हुआ है जो आम पाठकों के लिए थोड़ा बोझिल लगती है। लेकिन किताब का मुख्य आधार आनुवांशिक अध्ययन ही है जिसके बिना किताब की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।

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डेविड

'काम' की कमी नहीं है। पढ़ना और जानना सीख रहे हैं। पत्रकार होने की कोशिश। कबीर की चौखट से 'राम-राम'। पश्चिम उत्तर प्रदेश से हैं। भारतीय जन संचार संस्थान(IIMC)- 2023-24